गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

राम तारणहार या तोरणहार


लोकसभा में जिस लिब्रहान रिर्पोट ने संसद को कई दिनों तक गर्म रखा वो संसद से बाहर निकलते हीं खो गयी। जिस उम्मीद से यह रिपोर्ट लीक की गई थी; उसमें आंशिक सफलता भी न पा सकी। विद्वानों ने राय दी कि यह मुद्दा मर चुका है। दरअसल इसे तो मरना ही था। आखिर यह महज चुनावी मुद्दा जो ठहरा। एक दिन ऐसा आएगा; यह तो तभी लग गया था जब स्वयं अयोध्या में रहने वाले अधिकांष लोगों ने शुरू से ही राममंदिर आंदोलन का विरोध किया था। उनका विश्वास था कि राम सौहार्द और मर्यादारक्षक के प्रतीक हैं हिंसा और अलगाव के नहीं।

दरअसल राम की छवि एक धनुर्धारी योद्धा की है। जो उनके मर्यादा पुरुषोत्तम रूप पर भारी पड़ती है; जबकि कृष्ण की छवि मुरलीधारी माखनचोर बालगोपाल की है जो कि उनके कुटिल नीतिकार के चरित्र को ढ़क देती है। भारत के अधिकांश घरों में कृष्ण की पूजा की जाती है जबकि राम कुछ हजार अशोक सिंघलों की राजनीति के हथियार भर बन के रह गए हैं।

देखा जाए तो पिछले दो दशक में एक औसत भारतीय और अधिक धार्मिक हो गया है। बहुत कम लोग हैं जो खुले तौर पर यह स्वीकार कर सकें कि वे धर्म को नहीं मानते हैं। अतः अब धर्म को लेकर उठने वाले सवालों में भी परिवर्तन आया है। धर्मनिरपेक्ष होने से ज्यादा धर्म के स्वरूप पर विचार की जरूरत है। वैसे भी भारत में धर्मनिरक्षता का मतलब धर्म से इतर न होकर सर्वधर्मसमभाव ही माना जाता रहा है और भारतीय समाज को देखते हुए यही उपयुक्त भी लगता है। आधुनिकता की शुरूआत में ही धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय माना गया था। शुरूआत में इस पहल ने आश्चर्यजनक रूप से अलग अलग धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान की जगह संपूर्ण भारतीयता के दायरे में बहुलतावादी समाज की नींव रखी थी। सुदूर दक्षिण से लेकर बलूच कबीलों तक भारत का स्वप्न देखा गया।

आजादी के बाद जो भी टूटा-फूटा भारत बना उसने भरसक खुद को संवारने की कोषिष की। चालीस वर्षों तक उसने विभिन्न खट्टे मीठे अनुभवों से गुजरते हुए एक राष्ट्र के रूप में विकास करता रहा। परंतु नब्बे के दषक के कुछ ऐसे विभेदकारी परिर्वतन लाए; जिसने इस पहले से ही फटे चादर की मरम्मत को थोड़ा और कठिन बना दिया। नरसिंह राव की सरकार ने जिस आर्थिक उदारवाद को अपनाया उसने आर्थिक उन्नति तो दी; परंतु सामाजिक परिस्थितियों को काफी बदल दिया। जो समाज अभी तक सामंतवादी परंपरा की जकड़न को तोड़ न पाया हो; उसमें उत्तर - आधुनिक जीवन मूल्य ठूंसे जाने लगे। इस स्थिति ने एक कन्फ्यूज वर्ग को पैदा किया।

यह महज संयोग से कुछ ज्यादा है कि उदारवाद और कमंडलवाद लगभग एक साथ उभरे। ऐसा अकारण नहीं हुआ। दरअसल बाजारवाद ने जिस अंधाधुंध शहरीकरण को मजबूरी बना दिया; उसने परिवार के आकार को छोटा कर दिया। व्यक्ति अत्यधिक व्यस्त और अकेला होता गया। अपनी परंपराओं और संस्कृति से इतर एक उधार की संस्कृति के पीछे भागता शहरी मध्यवर्ग। इस स्थिति ने एक तरह की टूटन पैदा की है और एक तरह की आंतरिक ष्षून्यता। ऐसे अतिव्यस्त; नाराज और निराश समाज तक अपनी बात पहुंचाने और उन्हें आकर्षित करने के लिए किसी ऐसे प्रतीक की आवष्यकता थी; जिससे न तो वे नाराज हो सकें और न हीं निराष।

ऐसे में ‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ जैसे महाकाव्य न केवल राजनीति के बल्कि बाजार के भी सबसे आसान और सबसे कारगर हथियार बनकर उभरे। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ही इसलिए क्योंकि ये भारतीय समाज की जातीय स्मृति को झकझोरने की विराट ताकत रखते हैं। उनमें मनुष्य अपना इतिहास देखता है जो आधुनिक इतिहास से भिन्न लोकप्रिय इतिहास है।

पिछले दशकों का निर्णायक तत्व यही व्यवसायिक जातीय वृत्तांत है; जिसका नायक एक नया प्रतीक राम है। यही राम राजनीति और व्यवसाय दोनों के सबसे बड़े ब्रांड भी हैं और उत्पाद भी। यही वजह है कि यह नया प्रतीकात्मक ‘राम‘ समाज का पीछा नहीं छोड़ रहा। मगर जैसे काठ की हांडी दोबारा आग पर नहीं चढ़ती; वैसे ही समाज को एक ही झुनझुने से बार-बार नहीं बहलाया जा सकता। इस बहुलतावादी समाज में सबकुछ को पचा लेने की विराट क्षमता है। वह समझ चुकी है कि धर्म का संबंध आस्था से और राजनीति का व्यवहारिक जरूरतों से। दोनों का घालमेल सिर्फ नुकसान ही दे सकता है।

बाजार में हिस्सेदारी ढूंढ़ता हिंदी सिनेमा

आमिरखान अचानक गायब हो जाते हैं, मीडिया को मिर्ची लग जाती है। सचिन तेंदुलकर सामने आते हैं, एक फिक्र पढ़ते हैं और कहते हैं - बूझो तो जानें। सारे भाई लोग परेशान ये क्या बात हुई। आखिर सचिन ने ऐसा क्या कह दिया। और सचिन बल्ला छोरकर कविता क्यों कर रहे हैं।

सामान्य भाई लोग कविता के बारे में सोंच रहे थे और मुझ जैसे सवाल - जवाब करने वाले सोंच रहे थे कि इससे पहले तो कभी सुनने में नही आया कि आमिर सचिन में इसी लंगोटछाप दोस्ती है।

खैर हो भी सकती है आखिर दोनों स्टार जो ठहरे - खुद की नही तो एक दूसरे की रौशनी से चमकेंगे। चमकना आखिर इनकी फितरत से ज्यदा जरुरत जो ठहरी। बेचारे दादा के पास आज कितने विज्ञापन हैं। फ़िल्मी दुनियां के कितने लोगों की आज पूछ बांकी है। विनोद खन्ना, राजेश खन्ना, साब बेच्रे छोटे मोटे रोल से कम चलते हैं। एक समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना की तो भैया पूछो ही मत- नौकर भी मुंह नही लगाते। ले दे कर अमित जी ने ही इज्जत बचा रखी है, सो ससब उन्ही के राश्ते को सही मानते हैं।

आजकल तो वैसे भी बाजार का बोलबाला है। इसमें जो बिकता है वही दिखता है। इंडस्ट्री वाले कहते रहें कि जिसे दिखायेंगे वही बिकेगा। दर्शकों ने चूतिया बनाने से इंकार करना शुरू कर दिया है रही आमिर कि बात तो उन्हें पता है कि तारे जमीं पर बनाना और बात है उसे निभाना बच्चों का खेल नही। तब भला वो क्यों चुकने लगे बाजार को लपकने से , अब चाहे उंगली लम्बी हो कर टूट ही क्यों न जाय।

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

राहुल को मिली घर में ही चुनौती




कांग्रेस में राहुल गांधी एक एसा नाम है जिस पर समूचे देश के कांग्रेसी अपनी सियासत की रोटियां सेंक रहे हैं, मगर राहुल गांधी की अपने संसदीय क्षेत्र में क्या इज्जत है यह बात कुछ दिनों पहले ही सामने आई है। उत्तर प्रदेश के विधानपरिषद के चुनावों में उनके संसदीय क्षेत्र अमेठी के सुल्तानपुर क्षेत्र से पार्टी उम्मीदवार का नाम तय करने में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को पसीना आ गया। अनुशासन का पाठ सिखाने और युवाओं को अपने साथ लेने के लिए मिशन 2012 पर निकले राहुल गांधी के सामने उनके संसदीय क्षेत्र में ही अनुशासन नहीं दिखा. पार्टी ने जैसे ही जगदीश सिंह का नाम सामने किया वैसे ही असंतोष का लावा बह गया। नाराज कांग्रेसियों ने जगन्नाथ यादव को अपना प्रत्याशी घोषित कर गाजे बाजे के साथ उनका पर्चा दाखिल करवा दिया। इस विधानपरिषद के कुल वोटर 2860 हैं और अमेठी संसदीय क्षेत्र में 1034 मतदाता हैं। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पशोपेश में हैं कि वे इस विवाद को कैसे शांत करें, नहीं तो अगर यह चिंगारी अमेठी से निकलकर देश में फैली तो उनकी स्वीकारिता पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

अहसास

आज लगता है कुछ नया अहसास मन में जगा है। आखिर u.g.c. की उठा पटक से छुटकारा मिल गया। कितनी ही बार कोशिश करने पर जब सफलता न मिले और आखिर में मिल जाये तो उसे कह कर नही बताया जा सकता। सिर्फ महसूस किया जा सकता है। वैसे तो असफलता के इस कुछ समय में अपनों का साथ मिला पर उस मिलने में के चरित्र में फर्क सिर्फ मैं ही महसूस कर सकता था, किया भी । बाकी फिर कभी।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

धर्म और राजनीति का गंठ्जोर


तुलसी के राम तत्कालीन जनमानस के हृदय को जोरने वाले राम थे । वही अशोक सिंघल के लिए राजनीति के सबसे बड़े हथियार बनकर अवतरित हुए। दरअसल जबसे आर्थिक उदारवाद आया - सबकुछ मुनाफ़े के तराजू में तोला जाने लगा । राम और कृष्ण मुनाफा कमाने महत्वपूर्ण स्रोत बन कर उभरे । रामायण और महाभारत ने जितना मुनाफा कमाकर दिया , उतना शायद ही किसी और शॉपओपेरा ने इससे पहले कमाया हो। बाजार के तो मनो दोनों हाथों में लड्डू । भारतीय स्मृति के दो सबसे बड़े चिह्न उनके उत्पाद को बेचने के सबसे बड़े औजार बने। यही वो समय था ,जब भारतीय राजनीति में मंडल और कमंडल का आगमन होता है। यह अपनेआप में सयोंग से कुछ ज्यादा है। एक तरफ बाजार ने संयुक्त शब्द को निरर्थक करने का प्रयास क्या तो मंडल उभरा, और अपने उत्पाद को बेचने के लिए राम और कृष्ण नाम के प्रतीक का सहारा लिया तो कमंडल। बाजार के इस खेल ने राजनीति का दामन थामकर खून का जो खेल खेला है , उसमे कितने गोधरा और कितने शेपियाँ अभी और होंगे - कहना मुश्किल है। जब इश्वर और अल्लाह मानने से ज्यादा मनवाने ,और प्रेम से ज्यादा शत्रुता देने वाले बन जायें तो यह ठहर कर सोचने की जरुरत है कि क्या हमें ऐसे इश्वर चाहिए। शायद कबीर ने इसीलिए कट्टरता के विरुद्ध निर्गुण ब्रहम कि कल्पना कि थी।

नैतिकता की चादर में टाइगर ने किया सुराख़


रुढियों से नफरत करने वाला अमेरिकी समाज अचानक टाइगर वुड्स के प्रति नफरत से भर गया है। कल तक अमेरिका का सबसे बड़ा आइकन और दूसरा सबसे अमीर अश्वेत अमेरिकी आज एकाएक सबसे बड़ा अपराधी बन गया है। जनता तो जनता मीडिया भी उनके पीछे हाथ धो कर पर गई है।अभी तक वुड्स की जीवन शैली आदर्श मानी जाती थी। मीडिया से दूर रहने वाला यह गोल्फर कभी किसी विवाद में नही परा। परन्तु पिछले दिनों जब उनके जीवन के कुछ अनदिखे पहलू सामने आए तो मनो अमेरिकी मीडिया का यह दुलारा सीधे जमीं पर आ गिरा। दस से अधिक महिलओं से सबंध - भला यह भी कोई चरित्र हुआ । परतु अच्छे चरित्र कि परिभाषा कौन तय करेगा। हममे से कितने हैं जो यह दावा कर सकें कि उन्हें मौका मिले तो उनका चरित्र नही डिगेगा । ख़ुद अमेरिका में हर दस में से नौ लोग चाहे वे स्त्री हों या पुरूष अपने साथी के साथ इमानदार नही रह पातेफिर अगर वुड्स किसी के गुनहगार हैं भी तो अपनी पत्नी के। कम से कम मैं इस बात से सहमत नही कि इतने महान खिलाड़ी कि सिर्फ इसलिय अवहेलना हो क्योंकि वह अपने रिश्ते को ठीक से नही निभा सका।

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

मीडिया की गपशप

आज राज्य सभा की रिकार्डिंग करने का मौका मिला। काफी तेजी से काम होता है । न्यूज़ पेपर में लिखने का आदी आदमी थोरा टेंसन में आ जाता है। जाहिर है मै भी इन्सान हूँ। लेकिन यह भी सच है कि दवाव में ही आदमी सीखता है। इस रूप में मेरा यह अनुभव लाजबाब कहा जाएगा। जैसे जैसे समय बीत रहा है मै एक नयी दुनिया में प्र्भेश कर रहा हूँ। देख कर तो यही लगता है कि सीनियर लोगों का व्यवहार ठीक है। बकी समय के साथ ही पता चलेगा। एक शब्द में कहूँ तो मै खुश हूँ। बाकि फ़िर कभी।

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

गप -शप

आजकल मिडिया में कम करने का अवसर मिल रहा है। पहले की जिंदगी से बिल्कुल अलग महसूस कर रहा हूँ । कहाँ विश्वविद्यालय की आरामतलब जिंदगी और कहाँ यह भाग-दौड़ । शुरू -शुरू में थोरी परेशनी हुई मगर अब ठीक लगता है। इस जिन्दगी में भाग-दौड़ भले ही हो जिन्दगी में एक गति है, कभी-कभी ज्यादा आराम निकम्मापन का पर्याय बन जाता है। कम से कम अपने बारे में मै यही कह सकता हूँ । देखते है - अभी तो शुरुआत है। आने वाला वक्त और क्या -क्या दिखाता है।

रविवार, 23 अगस्त 2009

कही अनकही

मेरा नाम रवि रंजन कुमार है। आठ बरसों के संघर्स के बाद एक बार फ़िर मुझे महसूस होने लगा है कि मेरे अन्दर कि आग अभी मरी नही है। विश्वविद्यालयी शिक्छा पास करने के बाद एक लंबे खालीपन के बाद मीडिया की नौकरी तरफ उन्मुख हुआ। वैसे तो कोर्स के दौरान यही बतया गया था कि मीडिया में आना सेवा के सामान है.... मगर यह भ्रम तो E.TV में इन्टर्न करने के दौरान ही दूर हो गया। इसलिए मै तो इसे नौकरी ही कहूँगा । नौकरी के रूप में यह कितना चार्मिंग है , यह तो धीरे धीरे ही पता चलेगा। उम्मीद करता हूँ कि इतनी हिम्मत जुटा पाउँगा कि अपने प्रोफेसन की भी ईमानदारी से आलोचना कर पाउँगा।