मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011


गुजरात
गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी संजीव राजेन्द्र भट्ट को 30 सितंबर को गिरफ्तार कर लिया गया। यह गिरफ्तारी अहमदाबाद में उनके निवास स्थान से हुई। उन्हें घाट लेदिया थाने ले जाया गया। इससे पहले सितंबर महीने में ही राज्य सरकार ने संजीव भट्ट को निलंबित कर दिया था। छह पन्ने के निलंबन पत्र में उन पर बिना छुट्टी के गायब रहने, विभागीय जांच समिति के सामने पेश नहीं होने और सरकारी गाड़ी के गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया गया था। भट्ट पर धारा 341 (गलत ढंग से दबाव डालना),  342 (जबरदस्ती बंदी बनाकर रखना) और धारा 195 (सजा दिलवाने के लिए गलत सबूत पेश करना या गढ़ना) के तहत कार्रवाई की गई। गुजरात पुलिस ने 2002 दंगों से ही जुड़े एक मामले में राज्य के डीआईजी राहुल शर्मा के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया। उन पर आरोप लगा कि उन्होंने गोधरा दंगों की जांच के दौरान अनुशासनहीनता दिखाई और गोपनीयता के कानून का उल्लंघन किया।
गौरतलब है कि संजीव भट्ट ने गुजरात सरकार के खिलाफ एक हलफनामा दाखिल किया था। जिसके अनुसार गोधरा कांड के बाद 27 फरवरी, 2002 को मुख्यमंत्री निवास पर हुई बैठक  में नरेन्द्र मोदी ने पुलिस अधिकारियों से कहा था कि हिंदुओं को अपना गुस्सा उतारने का मौका दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार वो खुद मुख्यमंत्री आवास में हुई बैठक में मौजूद थे। जबकि गुजरात सरकार का कहना है कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि संजीव भट्ट मुख्यमंत्री आवास में हुई बैठक में मौजूद थे।
संजीव भट्ट की गिरफ्तारी को विशेषज्ञ बदले की कार्रवाई मान रहे हैं। संजीव भट्ट के वकील ने अदालत में यह दलील दी है कि संजीव भट्ट जब साबरमती जेल के सुपरिटेंडेंट थे, तब हरेन पांड्या के हत्यारों ने उनसे कई खुलासे किए थे। इसलिए मोदी सरकार उनको प्रताडि.त कर रही है। उन पर अपने मातहत काम कर चुके पुलिस कांस्टेबल बीके पंत पर दबाव डालकर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ हलफनामा दाखिल करवाने का आरोप लगाया गया। बीके पंत ने वर्ष 2002 में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक हलफनामा दाखिल किया था, लेकिन बाद में उन्होंने कहा था कि ये हलफनामा उन पर दबाव डालकर दिलवाया गया था। उनका कहना था कि चूंकि संजीव भट्ट उनके अधिकारी थे इसलिए वे इससे इंनकार नहीं कर पाए। पंत ने पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज करवाई थी।
 भट्ट अकेले शिकार नहीं हैं। राहुल शर्मा के खिलाफ दायर आरोप पत्र को भी इसी नजरिये से देखा जा रहा है। राहुल शर्मा ने 2004 में कई अहम सूचनाएं और दस्तावेज नानावती आयोग को सौंपे थे। नानावती आयोग का गठन गुजरात दंगों की जांच के लिए किया गया था। 2010 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दंगों की जांच के लिए विशेष जांच दल का गठन किया गया, तब शर्मा ने वही दस्तावेज इस जांच दल को भी सौंपे। शर्मा के अनुसार इन दस्तावेजों में 2002 के हिंदू-मुसलमान दंगों के दौरान राज्य सरकार के मंत्रियों, आला पुलिस अधिकारियों के कॉल डिटेल, उनके फोनों की लोकेशन वगैरह का ब्यौरा है।
मानवाधिकार संगठनों और विपक्षी दलों का मानना है कि चूंकि इन अधिकारियों ने दंगों की जांच में मददगार दस्तावेज जांच समिति को उपलब्ध करवाए और सरकार के खिलाफ जाने का साहस दिखाया, इसी कारण इन्हें टार्गेट किया जा रहा है। इनके खिलाफ दायर हलफनामों को बदले की कार्रवाई के रूप में देखा जा रहा है। इन घटनाक्रमों पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस प्रवक्ता रेणुका चौधरी ने कहा कि इस गिरफ्तारी से मुझे जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। नरेन्द्र मोदी सरकार वही कर रही है, जिसकी उससे अपेक्षा थी। इससे जाहिर होता है कि नरेन्द्र मोदी किस तरह व्यवहार करते हैं।
अदालत में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा नियुक्त एफिडेविट जांच अधिकारी ने अपना बयान दर्ज  करवाया कि संजीव भट्ट ने जो एफिडेविट सुप्रीम कोर्ट में दिया था वो जांच में फर्जी पाया गया। वहीं संजीव भट्ट के विरोधी उनपर आरोप लगा रहे हैं कि अगर उनके पास हरेन पाड्या की हत्या से जुड.े सबूत थे, तो वो 8 साल तक चुप क्यों रहे। जिस कैदी के हवाले से सबूतों का खुलासा करने की बात कही गई, उसने मीडिया के सामने साफ इनकार कर दिया कि उसने संजीव भट्ट को कोई बात बताई है। इस इनकार के पीछे कारण कुछ भी हो सकता है। मगर इतने लंबंे समय तक उनकी चुप्पी संदेह तो पैदा करती ही है।
अतीत में संजीव भट्ट पर जितने भी केस दर्ज हुए, उन सबको अदालत के सामने लाया जा रहा है। इनमें सुमेर सिंह राजपुरोहित नार्कोटिक्स केस, जामनगर में हिरासत में पीट-पीट कर हत्या का केस, पोरबंदर के कमलानगर थाने में दर्ज एक व्यक्ति को पूछताछ के दौरान बिजली के करंट देकर आजीवन लकावाग्रस्त बना देने का केस, आदि शामिल हैं। इसके अलावे अहमदाबाद के पास अडालज में नर्मदा केनाल के करीब 2000 वार की सरकारी जमीन पर कब्जा करने का आरोप लगाया गया है। 1996 मेें हुए सिपाही पद की भर्ती के मामले में भी उनपर बड.ा घोटाला करने के आरोप लगाए गए। उनपर गुजरात के सहायक अटार्नी जनरल का ई मेल हैक करके कई गोपनीय जानकारियां चुराने का केस दर्ज है।
राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप तो चलता ही रहता है। क्या सही है, क्या गलत, इसका फैसला या तो जांच समिति करेगी या अदालत। मगर इतना तय है कि इस पूरे घटनाक्रम पर उठे विवाद से गुजरात सरकार और खासकर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की काफी किरकिरी हुई है।
आईपीएस लॉबी साथ आयी
गुजरात के 35 आईपीएस अफसर संजीव भट्ट के समर्थन में आ गए हैैं। सूत्रों के अनुसार आईपीएस एसोसिएशन की बैठक में बकायदा यह प्रस्ताव पास किया गया है और फैसला लिया गया है कि संजीव भट्ट के परिवार को तमाम संभावित मदद की जाएगी। इस संदर्भ में तीन सीनियर आईपीएस अफसर अतुल करवाल (ज्वाइंट पुलिस कमिश्नर), वीएम पारधी (आईजी बॉर्डर रेंज) और प्रवीण सिन्हा (सीनियर आईजी) संजीव भट्ट के घर समर्थन में पहुंचे और उनकी पत्नी श्वेता भट्ट को हर तरह की मदद का आश्वासन दिया। इस बात की पुष्टि सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने भी की।
संजीव भट्ट: प्रशासनिक सफर
संजीव भट्ट ने आईआईटी मुंबई से पोस्ट ग्रेजुएट किया। वर्ष 1988 में भारतीय पुलिस सेवा में आए। दिसंबर 1999 से सितंबर 2002 तक राज्य खुफिया ब्यूरो में खुफिया उपायुक्त के रूप में कार्यरत रहे। गुजरात के आंतरिक सुरक्षा से जुड़े सभी मामले उनके अधीन रहे। इसमें सीमा सुरक्षा और तटीय सुरक्षा के अलावा अतिविशिष्ट जनों की सुरक्षा भी शामिल रहे। इस दायरे में मुख्यमंत्री की सुरक्षा भी आती थी। संजीव भट्ट नोडल ऑफिसर भी थे, जो कई केन्द्रीय एजेंसियों और सेना के साथ खुफिया जानकारियों का आदान-प्रदान भी करते थे। 2002 दंगों के समय संजीव इसी पद पर थे।
वर्तमान में 47 वर्षीय संजीव भट्ट गुजरात के जूनागढ. में राज्य रिजर्व पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र के प्रिंसिपल के रूप में कार्यरत थे। यहीं से विवादों का सिलसिला शुरू हुआ और उन्हें पहले निलंबन और फिर गिरफ्तारी झेलनी पड़ी।

सुरक्षा की मांग
संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने केन्द्रीय मंत्री पी ़ चिदंबरम को एक पत्र लिखकर आरोप लगाया है कि गुजरात पुलिस ने उनके पति के साथ आतंकवादियों जैसा सलूम किया है। श्वेता ने कुछ समय पहले भी चिदंबरम को एक पत्र लिखा था, जिसमें संजीव भट्ट की सुरक्षा को लेकर चिंता जताते हुए कहा गया था कि बदले की भावना से प्रेरित प्रशासन से उनके पति की जान को खतरा है। उन्होंने प्रशासन पर आरोप लगाते हुए कहा कि-भट्ट को शहर की अपराध शाखा की एक गंदी, मलिन और बदबूदार कोठरी में रखा गया है। श्वेता भट्ट के पत्र के जवाब में केन्द्र सरकार ने गुजरात सरकार से कहा कि वो संजीव भट्ट और उनके परिवार को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराए।

नायक से अधिनायक तक


        कैसे एक व्यक्ति नायक से अधिनायक के रूप में तब्दील होकर अप्रत्याशित अंजाम तक पहुंचता है, इसकी बानगी के रूप में कर्नल गद्दाफी को देखा जा सकता है। वो एक छोटे देश के बड़े शासक थे और सबसे बड़े देश (अमेरिका) की आंखों की किरकिरी बन गए। इस बार अमेरिका ने नेपथ्य में रहकर खेल खेला। कर्नल गद्दाफी वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अरब राष्ट्रवाद का नारा दिया था। आज अगर अरब मुल्क अपने तेल के कुओं के बन पर मालामाल हैं तो यह गद्दाफी की देन है। जानकार कहते हैं कि वो एक छोटे देश के बड़े शासक थे। मगर बाहरी दुनिया वो अपने  सनकी मिजाज, अय्याशी भरे जीवन और महिला बॉडीगार्डों के कारण ही ज्यादा जाने गए।
1960 के दशक में दुनिया के कई हिस्सों में जनक्रान्तियां जन्म ले रही थी। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका आदि देशों में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की लहर सी दौर रही थी। साम्रज्यवादी सत्ता की चूलें हिलने लगी थी। सोवियत संघ और अमेरिका के बीच जारी शीत युद्ध ने दुनिया के अन्य देशों को प्रतिरोध का अवसर दिया। यही वह समय था जब लीबिया में भी निरंकुश शासन के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। मुअम्मर गद्दाफी इसी विद्रोह की उपज थे।
   मरूस्थल में बसने वाले एक गरीब आदिवासी कबीले में जन्म लेने वाले गद्दाफी उन युवा सैन्य अफसरों में शामिल थे जिनपर मिस्र के नेता जमाल अब्दुल नासिर के पैन-अरबवाद और समाजवादी सुधारवाद का काफी गहरा प्रभाव पड़ा। गरीब कबीलों के साथियों के साथ अपनी फौज बनाकर 1969 में उन्होंने सम्राट इद्रीस के खिलाफ सैनिक विद्रोह कर दिया और एक रिवोल्यूशनरी  कमांड कौंसिल बनाकर उसके तहत सरकार की स्थापना की। गद्दाफी ने सत्ता संभालने के बाद खुद को कर्नल के खिताब से नवाजा। देश के आर्थिक सुधारों की तरफ ध्यान दिया। पुरानी सत्ता पर राष्ट्रीय संपत्ति के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए उन्होंने प्रमुख तेल उद्योग में सरकार की हिस्सेदारी तय की। 1970 के दशक में उन्होंने जिन सामाजिक कार्यक्रमों को अपनाया उससे अगले 20 वर्षों तक जन साक्षरता,आवास और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी विकास हुआ। उनकी इन नीतियों को जनता का समर्थन मिला।
विशेषज्ञों का मानना है कि गद्दाफी परिवर्तन तो ला रहे थे मगर यह परिवर्तन साम्राज्यवादी प्रभुत्व, पूंजीवादी पूंजी, कबीलाई निष्ठा और क्षेत्रीय भेदभाव के भंवर में फंस गई थी। कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे यह लगे कि साम्राज्यवाद से नाता तोड़ना कहा जा रहा है। गद्दाफी ने राजनीतिक समर्थन को विस्तार देने और केन्द्रीय सत्ता के प्रति आदिवासी समूहों और कबीलों की निष्ठा हासिल करने के लिए स्थानीय स्तर पर ‘जन समीतियों’ का गठन किया। लीबिया सैन्य तानाशाही की तरफ बढ़ने लगा था। कम्युतिष्ट  विरोधी गद्दाफी का दावा था कि उन्होंने पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच तीसरा रास्ता ढ़ूढ़ निकाला है। पर सच तो यह था कि लीबिया तेल से होने वाली आय पर आधारित राज्य पूंजीवाद की तरफ बढ़ रहा था जिसने बाजार, टेक्नोलॉजी, परिवहन और निवेश की जाने वाली पूंजी के लिए विश्व पूंजीवाद को गले लगा लिया था। तेल से होने वाली इस आय का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर सुरक्षा और सैन्य तंत्र को विकसित करने के लिए किया जाने लगा। इसका मकसद सरकार के विरूद्ध आंतरिक विद्रोह का दमन करना था। सोवियत संघ ने इस मामले में लीबिया का भरपूर साथ दिया। लीबिया को सबसे ज्यादा हथियार उसने ही बेचे।
    मगर गद्दाफी ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया उसमें काफी विरोधाभास था। एक तरफ तो वो आर्थिक विकास के लिए प्रयास कर रहे थे तो दूसरी तरफ सामाजिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध भी लगा रहे थे।  उन्होंने मजदूर यूनियनों और स्वतंत्र राजनीतिक संगठनों को गैरकानूनी घोषित कर दिया। प्रेस द्वारा सरकार की आलोचना पर लगभग प्रतिबंध लगा दिया।
  जिस साम्राज्यवाद का नारा देकर वे सत्ता में आए थे उसके विरूद्ध लीबिया की सारी परियोजनाएं तेल आधरित अर्थव्यस्था को बनाए रखने और उसके विस्तार पर टिकी थी। लीबिया अपने तेल के व्यापार के लिए पश्चिमी यूरोप पर  निर्भर था। गद्दाफी ने तेल से मिले पैसे से फ्रांस से जेट विमान खरीदे, निर्माण के क्षेत्र में निवेश के लिए जर्मनी की पूंजी को आमंत्रित किया तथा इटली जिसने काफी समय तक उसे अपना उपनिवेश बना रखा था उसकी सबसे बड़ी ऑटोमोबाईल कंपनी में निवेश और अपने देश में व्यापार जारी रखने की इजाजत दे दिया। इन फैसलों से लीबिया में गद्दाफी की लोकप्रियता जाती रही।
बाद में उनपर चरमपंथी संगठनों को भी समर्थन देने के आरोप लगे। बर्लिन के एक नाइट क्लब पर साल 1986 में हुए हमले का आरोप गद्दाफी पर लगाया गया। इस क्लब में अमेरिकी फौजी जाया करते थे। इसकी प्रतिक्रिया में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के आदेश पर त्रिपोली और बेनगाजी पर हवाई हमले हुए। इस हमले में गद्दफी बच निकले। इसके अलावे लॉकरबी शहर के पास पैनएम जहाज में हुए एक विष्फोट में 270 लोग मारे गए। हमले के दो आरोपियों को गद्दाफी ने स्कॉटलैंड पुलिस को सौंपने से इनकार कर दिया। प्रतिक्रियास्वरूप संयुक्त राष्ट्र ने लीबिया पर प्रतिबंध लगा दिए। 1999 में दोनों के आत्मसमर्पण के बाद  यह प्रतिबंध हटा।
 जहां तक वैचारिक स्तर का सवाल है तो गद्दाफी ने इस्लाम को सरकारी तौर पर राज्य का धर्म घोषित किया। महिलाओं को अवश्य पहले के मुकाबले ज्याद आजादी मिली मगर पितृसत्तात्मक शरियत कानून को वैधानिक जामा पहना दिया।
2003 में इराक पर हमले के बाद गद्दाफी यह सोचने को मजबूर हुए कि अब अगला निशाना लीबिया हो सकता है। परिणामस्वरूप अमेरिका के साथ दोस्ती का प्रयास शुरू हुआ। इसी के तहत उसने अमेरिका से खुफिया सूचनाएं बांटी। 2004 में ऐलान किया कि महत्वपूर्ण परमाणु हथियार कार्यक्रमों को खत्म किया जा रहा है। अमेरिका ने भी आतंकवादी देशों की सूची से लीबिया का नाम हटा दिया। ब्रिटेन उसे हथियार बेचने लगा। यही नहीं फरवरी 2011 में अंतराष्ट्रीय मुद्राकोश ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें गद्दाफी के ‘महत्वाकांक्षी सुधार एजेंडा’ और ‘जबरदस्त मैक्रो इकोनॉमिक कार्यकुशलता’ के लिए उन्हें शाबाशी दी। हैरानी  की बात है कि जनता के विद्रोह के बाद अमेरिका और यूरोप ने न केवल गद्दाफी से किनारा कर लिया, बल्कि विद्रोहियों को मदद भी दी।
 वर्तमान विद्रोह से पहले लीबिया दुनिया का नौवां सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश था। इस विद्रोह ने संभव हो पश्चिमी शक्तियों को यह उम्मीद दी हो कि उन्हें कोई दूसरा ऐसा शासक वहां मिल जाए, जिसके माध्यम से लीबिया में उनके हित सध सकें। अतः इस बात की संभावना जताई रही है कि एक तरफ लीबिया में न्यायपूर्ण जनविद्रोह है तो दूसरी तरफ साम्राज्यवादी छल-कपट भी है। गद्दाफी की मौत के बाद इस देश में अराजकता का माहौल न पनपे इसके उपाय करने होंगे। हालांकि उनकी यह नियति कहीं न कहीं पश्चिम की दोहरी नीति का ही एक उदाहरण है। पश्चिीमी शक्तियों ने अरब देशों का जमकर दोहन तो किया मगर उनके सामाजिक विकास का शायद ही कोई प्रयास किया हो। अब उनकी मौत के बाद लीबिया को लोकतंत्र के रास्ते पर ले जाने का रास्ता न तो राष्ट्रीय परिषद के पास है और न यूरोप-अमेरिका के पास। इराक और अफगानिस्तान में आज तक स्थिरता नहीं आ पायी है। लीबिया का समाज तो कबीलों में बंटा समाज है। परस्पर प्रतिस्पर्धा का माहौल है। ऐसे में चुनौति और कठिन हो जाती है।
एक अच्छी बात यह हुई है कि लीबिया संघर्ष में नाटो फौज की कमान संयुक्त राष्ट्र के हाथों में रही है। अमेरिका पर्दे के पीछे ही रहा है। अतः लीबिया के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र को ही निभानी होगी।
लीबिया के पास धन की कमी नहीं है। विदेशों में ही लीबिया की 168 अरब डॉलर की संपत्ति जब्त की गई थी।  युद्ध से पहले लीबिया का आर्थिक उत्पादन 80 अरब डॉलर का था। युद्ध के दौरान लीबिया को लगभग 15 अरब डॉलर का नुकसान उठााना पड़ा। मगर लीबिया सेंट्रल बैंक के पूर्व गर्वनर फरहत बंगदारा के मुताबिक, यदि विदेशी सरकारें लीबिया की जब्त संपत्ति को मुक्त कर दें तो यह बड़ा संकट नहीं है। जरूरत इच्छाशक्ति की है। भारत ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए हर तरह के मदद की पेशकश कर दी है।

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

संकट में सीरिया


आधुनिकता की दस्तक के साथ ही 18वीं,19वीं सदी में औद्योगिकरण, उपनिवेशवाद और पुनर्जागरण के दौर ने विश्व राजनीति में जो उथल-पुथल पैदा की थी, वैसा ही उथल-पुथल 21वीं सदी में ट्यूनीशिया, मिश्र, लीबिया और सीरिया आदि देशों में दिखाई दे रहा है। ट्यूनीशिया के शक्तिशाली व्यक्ति 74 वर्षीय जाइन-अल-अबीदीन बेन अली द्वारा अचानक अपना देश छोड़ना अरब और मुस्लिम विश्व के लिए दूरगामी परिणाम वाला साबित हुआ। इस घटना पर इजिप्ट के एक विश्लेषक ने टिप्पणी करते हुए कहा कि-‘प्रत्येक अरब नेता ट्यूनीशिया को भय से देख रहा है और प्रत्येक अरब निवासी ट्यूनीशिया को आशा और एकजुटता के साथ देख रहा है।’ 
              जल्द ही यह टिप्पणी मिश्र, लीबिया और सीरिया में सही होती नजर आई। मिश्र में होस्नी मुबारक सत्ता खो चुके हैं। लीबिया में गद्दाफी की सेना और नाटो के बीच सशस्त्र संघर्ष जारी है और सीरिया में जनक्रान्ति निरंतर जोर पकड़ती जा रही है। मार्च से जारी इन विरोध प्रदर्शनों में संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार अब तक 2900 से भी अधिक लोग मारे जा चुके हैं। सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल-अशद की सरकार का कहना है कि वह सुधारों को लागू करने की कोशिश कर रही है और साथ ही विपक्ष के साथ भी बात हो रही है। उसने असंतोष के लिए सशस्त्र गुटों को जिम्मेदार ठहराया है। जबकि मानवाधिकार संगठनों और वैकल्पिक मीडिया से छनकर आई खबरों से यही पता चलता है कि लीबिया से अलग सीरिया में विरोध प्रदर्शन ज्यादातर शांतिपूर्ण रहे हैं।
इसके पहले अप्रैल महीने में हुए सरकार विरोधी प्रदर्शन को बेरहमी से कुचलते हुए पुलिस ने अंधाधुंध गोलीबार कर करीब 90 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। इस दमन के विरोध में यूरोपीय संघ ने मई महीने में सीरियाई राष्ट्रपति पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी। ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलिम हेग ने कहा कि सीरिया में दमन की कार्रवाई निरंतर चल रही है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार होना चाहिए। लेकिन रूस और चीन ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वीटो की धमकी दी। साथ ही भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका आदि देश भी प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हैं। इस पर यूरोपीय देश सीरिया सरकार के खिलाफ तत्काल प्रतिबंध की मांग छोड़ संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से प्रस्ताव लाने पर सहमत हुए थे। इस प्रस्ताव का मकसद ही रूस और चीन का समर्थन हासिल करना था।
                    प्रस्ताव पर हुई वोटिंग में चीन और रूस ने वीटो कर दिया तथा भारत समेत चार देश अनुपस्थित रहे। प्रस्ताव की असफलता से अमेरिका और यूरोपीय संघ को झटका लगा है। वहीं सीरिया में चीन और रूस के खिलाफ भी प्रदर्शन हो रहे हैं। जबकि इन दोनों देशों ने अपना रुख पहले से ही स्पष्ट कर रखा था। रूसी
विदेश उपमंत्री गेनादी गतिलोव ने इससे पहले कहा था कि प्रस्ताव इसलिए अस्वीकार्य है क्योंकि वह प्रतिबंध की ओर बढ़ता है। इस राजनीतिक उठा-पटक से अलग सीरिया के दमिश्क, हमा, दार उल और हुला शहर पर भारी संख्या में बख्तरबंद गाडि़यों में बैठे सैनिक लोगों को बेरहमी से मार रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों को वहां प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। इससे वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं मिल रही। 1946 में फ्रांस के शासन से मुक्ति के बाद से सीरिया में लगातार राजनीतिक अस्थिरता रही है। सन् 1963 से ही देश में आपातकाल लागू है। 1970 के बाद से यहां के शासक अशद परिवार के लोग होते रहे हैं। देश की 90 फीसदी आबादी मुस्लिम है और 10 प्रतिशत इसाई। 1973 में संविधान बनाकर उसे अपना लिया गया, जिसमें बाथ पार्टी को नेतृत्व का अधिकार मिला साथ ही यह प्रावधान भी कर दिया गया कि कोई मुस्लिम ही राष्ट्रपति हो सकता है।
                     अमेरिका और यूरोपीय समुदाय सीरियाई अर्थव्यवस्था के कमजोर होने का हवाला देकर प्रतिबंधों की पैरवी कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस प्रकार अशद सरकार को झुकाया जा सकता है। मगर तथ्य कुछ और कहते हैं। दरअसल सीरिया अपना धन अमेरिका या किसी यूरोपीय देश में नहीं रखता, बल्कि अपने देश में ही रखता है। उसकी सेंट्रल बैंक के पास पहले से ही 17 बिलियन अमेरिकी डालर सुरक्षित रखें हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सीरिया न तो विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा है और न ही सार्वभौमिक अर्थव्यवस्था में एकीकृत  हो पाया है। वह कृषि समेत कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर है। घरेलू उपभोग के लिए उसके पास पर्याप्त तेल और गैस मौजूद है। इसके अलावा ईरान सदैव उसकी मदद को तैयार रहेगा।
प्रतिबंधों के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इससे सीरिया का बिजनेस समुदाय अशद सरकार का समर्थन करना बंद कर देंगे। यह भी सत्य से दूर लगता है। असल में सीरिया का बिजनेस समुदाय दो भागों में बंटा है। एक नया मध्य वर्ग है, जिसे अशद सरकार का भरपूर समर्थन प्राप्त है तो दूसरा पारंपरिक सुन्न्नी और इसाई व्यापारिक परिवार। जो अस्थिरता और धार्मिक संघर्ष से डरता है। अतः सीरिया में प्रतिबंध बहुत कारगर साबित नहीं होंगे। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रस्ताव के पास न होने पर रूस और चीन को यह चेतावनी देते हुए कहा है कि उन्हें वोटिंग में वीटो करने के कारण सीरिया में पैदा होने वाली स्थिति की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी।

रथ पर राजनीति


लालकृष्ण आडवाणी की वर्तमान रथयात्रा, जिसे ‘जनचेतना यात्रा ’ नाम दिया गया है, का उद्देश्य अन्ना हजारे के अनशन से उठी जनचेतना का राजनीतिक लाभ लेने के साथ-साथ आडवाणी जी को पुनः भाजपा का सर्वमान्य  नेता के तौर पर स्थापित करना है। यह यात्रा अरुणाचल  प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम के साथ चुनावी राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा से भी गुजरेगी। आडवाणी जी की यह सातवीं रथ यात्रा है। इससे पहले वे रामरथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा निकाल चुके हैं। भाजपा के महासचिव अनंत कुमार इस यात्रा के मुख्य समन्वयक हैं तथा कई दिग्गज भाजपा नेता मसलन रवि शंकर प्रसाद, मुरलीधर राव और पार्टी सचिव श्याम जाजू सह-समन्वयक की भूमिका में डटे हुए हैं।
तैयारी जोरों पर है। 11 अक्टूबर को शुरू हुई यह यात्रा 38 दिन तक चलेगी। कुल 18 राज्यों और 3 केन्द्रशासित प्रदेशों को कवर करेगी। बारह हजार किलोमीटर का सफर तय किया जायेगा। यात्रा सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक चलेगी। इस दौरान 250 से 300 किलोमीटर तक की दूरी तय की जायेगी। इस यात्रा के लिए रथ के तौर पर अत्याधुनिक बस का इस्तेमाल किया जाएगा। बस पुणे में तैयार की जा रही है। भाजपा सचिव श्याम जाजू के अनुसार बस में लिफ्ट, टेलीविजन,  कम्प्यूटर और लोगों को संबोधित करने की प्रणाली लैस होगी।
                     इन तैयारियों से तो यही लगता है कि आडवाणी जी ने पूरा रंग जमाने की तैयारी कर ली है। पर इस रंग में भंग तब पड़ जाता है, जब गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के कद्दावर नेता नरेन्द्र मोदी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में नहीं पहुंचते। इस अनुपस्थिति के कई निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे मोदी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा से जोर कर देख रहे हैं, तो कुछ इसे मोदी की नाराजगी बता रहे हैं। गौरतलब है कि पिछले दिनों अपने उपवास के दौरान किसी बड़े भाजपा नेता के गुजरात न पहुँचने पर मोदी ने अपनी नाराजगी जताई थी। इस सारे झमेले से एक बात को स्पष्ट हो चुकी है कि आडवाणी अब भाजपा में सर्वमान्य नहीं रह गए हैं।
            आडवाणी वही व्यक्ति हैं, जिन्हें कुछ समय पहले तक भाजपा की रीढ  कहा जाता था। 1990 में सोमनाथ से अयोध्या तक राम मंदिर निर्माण के समर्थन में रामरथ यात्रा निकाल कर उन्होंने कट्टर
हिन्दूवादी राजनीति की शुरूआत की थी। इसी रथ पर सवार होकर भाजपा पहले उत्तर प्रदेश और बाद में केन्द्र में सत्ता में आयी। चार बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी का चेहरा अवश्य थे। मगर पार्टी के अंदर आडवाणी की ही तूती बोलती थी। उन्हें आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) का भी पूर्ण समर्थन हासिल था। इसकी वजह भी थी। दरअसल, इस पार्टी से उनका जुडाव तब से है, जब से एक विचार के रूप में इसकी शुरूआत हुई थी।
उनकी उपलब्धियां पार्टी में उनकी स्थिति का समर्थन करती है। मगर पिछले कुछ समय से आडवाणी अपनी कट्टर हिंदूवाद की छवि को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। इसके पीछे उनके निकटतम सहयोगी सुधीन्द्र कुलकर्णी का प्रभाव माना जाता है। राजनीतिक विश्लेषकों का एक तबका यह मानता है और कहता रहा है कि भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक , बहुधार्मिक देश में कोई धर्मनिरपेक्ष छवि वाला व्यक्ति ही सत्ता की बागडोर संभाल सकता है। अपनी छवि बदलने की कवायद आडवाणी ने पाकिस्तान यात्रा के समय ही कर दी थी, जब जिन्ना के मजार पर जाकर उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान को सराहा था। मगर तभी से वे आरएसएस के आंखों की किरकिरी भी बन गए।
वर्तमान रथयात्रा में इस भेद को महसूस किया जा सकता है। क्योंकि आरएसएस ने इसी शर्त पर इस रथयात्रा को सहयोग देना स्वीकार किया कि प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी  से इस यात्रा का कोई लेना देना नहीं है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का स्पष्ट बयान आया कि लालकृष्ण  आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की होड़ के लिए नहीं है। बल्कि आडवाणी भारत में सुशासन लाने और भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए यह यात्रा कर रहे हैं। यात्रा के संयोजक अनंत कुमार ने भी यह बयान दिया कि यह यात्रा ‘देश पहले’ की भावना को बढ़ाने के लिए है। स्वयं आडवाणी को भी इसकी पुष्टि करनी पड़ी। नागपुर में सरसंघचालक (आरएसएस) मोहन भागवत से मुलाकात के बाद ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि बीजेपी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से बहुत अधिक दिया है।
भाजपा नेता के बयानों से तो यही लगता है कि आडवाणी प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए यह यात्रा नहीं कर रहे। मगर तथ्य कुछ और कहते हैं। यात्रा की शुरूआत पोरबंदर (गुजरात) से न करके सिताब दियरा (बिहार) से करने का कारन दरअसल, भाजपा के भीतर आडवाणी जी के आलोचकों का  मुंह बंद करने के साथ-साथ एनडीए के घटक दलों को भी यह संदेश देना है कि कभी कट्टरपंथी समझे जाने वाले आडवाणी अब सेक्यूलर छवि वाले नीतीश को भी स्वीकार्य हैं। सिताब दियरा लोक नायक जयप्रकाश नारायण का जन्म स्थान है वहीं यात्रा को हरी झंडी दिखाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्ष चेहरा और भाजपा के सबसे बड़े सहयोगी दल के मुखिया। अगले लोकसभा चुनाव में मोदी को राजग का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की कवायद के सख्त विरोधी जदयू के शीर्ष नेता नीतीश कुमार से आडवाणी की रथयात्रा को हरी झंडी दिखाने के गहरे राजनीतिक अर्थ निकाले जा रहे हैं। संभवतः यह पार्टी और जदयू को यह संकेत देने का प्रयास हो कि प्रधानमंत्री पद के विकल्प अभी खुले हैं।
मामला काफी नाटकीय होता जा रहा है। भविष्य में कई और राजनीतिक पैतरे आजमाए जाएंगे। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपनी अंदरूनी लड़ाई में फंसी रहती है या इससे उबरकर वर्तमान परिस्थितियों का लाभ उठा पाती है। फिलहाल तो इस उठा-पटक से यूपीए को ही फायदा हो रहा है।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

बॉलीवुड का बाजारभाव

पिछले दो दशक में बॉलीवुड का चाल; चरित्र और चलन काफी बदल गया है। यह महज संयोग नहीं कि बॉलीवुड में आया यह युगांतकारी बदलाव उस दौर में शुरू हुए जिसे उदारवाद का दौर बताया जाता है। 1990 -91 में आर्थिक मोर्चे पर शुरू हुए उदारवाद ने कुछ हद तक सांस्कृतिक माने जाने वाले सिनेमा की सीमाओं को खोलकर उसे एक नए दौर में पहुंचा दिया। ये दौर बाजार का दौर था। तकनीक और बाजार के मिले जुले सहयोग से हिंदी सिनेमा ग्लोबल हो गया। पुराने थियेटर एक के बाद एक बंद होने लगे।
देशी ललनाओं को लूटने वाले अप्रवासी नायक इस दौर में फिनोमिना बन गए। 1995 में चोपड़ा कैंप की शाहरूख - काजोल अभिनीत दिल वाले ‘दुल्हनिया ले जाएंगे‘ फिल्म आई। इसके बाद ऐसी फिल्मों की बहार आ गई। शाहरुख के सुपर स्टार बनने में ऐसी फिल्मों ने महती भूमिका निभाई। यह महज संयोग नहीं है कि शाहरूख हिंदुस्तान जितने ही बाहर भी लोकप्रिय हैं। इसी दौर में महानगरों में ही नहीं; मझोले शहरों तक में बड़ी संख्या में मल्टीप्लेक्स खुलने लगे। इसी वक्त ढ़ाई करोड़ एनआरआई और मल्टीप्लेक्स के देशी दर्शकों के साथ सिनेमा का एक नया कंज्यूमर क्लास सामने आया जिसके पास खर्च करने के लिए बहुत कुछ है। परंतु इसी काल खंड के दौरान टीवी दूरदर्शन के महाभारत और चित्रहार के सीखचों से बाहर निकलकर निजी चैनलों की जद में पहुंच गया। इससे थोड़ा बाद में ही इंटरनेट का भी उभार हुआ। इन माध्यमों के कंज्यूमर भी ज्यादातर यही वर्ग हैं। फलत: मनोरंजन के साधन के तौर पर सिनेमा को जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा से गुजरना पड़ रहा है। हालांकि कई बार ये माध्यम सिनेमा के विरोधी नहीं पूरक की भूमिकाओं में भी नजर आते हैं।
इसका परिणाम पिछले कुछ समय से प्रचार के नए-नए हथकडों के रूप में सामने आया है। तकरीबन साल भर पहले ‘गजनी‘ के प्रदर्शन से पहले पिछली दिवाली पर एक मल्टीप्लेक्स के सभी कर्मचारी एक ही हेयर स्टाइल में नजर आए। मौका भी ऐसा चुना गया जिसने सोने पे सुहागा का काम किया। आमिर खान के प्रतिद्वंदी के रूप में जाने जाने वाले “ााहरुख खान अभिनित ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ का पहला “ाो उसी मल्टीप्लेक्स में चल रहा था। मीडिया को मसाला मिला और ‘गजनी‘ को पब्लीसिटी।
इस एक हेयर स्टाइल को ऐसा सिबांलिक रूप दिया गया कि उसने ‘गजनी‘ को 100 करोड़ से ज्यादा की कमाई करा दी। इससे पहले शाहरुख खान की ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ के प्रमोशन में भी सारा घ्यान एक गाने पर रखा गया और शाहरुख के लुक पर जिसमें वे मूंछों वाले एक आम मिडिल क्लास आदमी नजर आ रहे हैं। 'थ्री इडियटस’ के प्रमोशन में तीन आदमी कैमरे की तरफ पीठ किए कमोड पर बैठे नजर आते हैं जबकि फिल्म का मुख्य थीम कुछ और हैं। जाहिर है कि इस तरह के प्रयोग अधिक से अधिक व्यूअर को मल्टीप्लेक्सों तक खींच कर लाने के लिए किए जा रहे हैं। ये एक अलग तरह का चिन्हशास्त्र है; जिसमें चिन्हों को ब्रांड में बदलकर अपने उत्पाद को बेचने की कोशिश की गई है।
ब्रांड वैल्यू के वर्तमान दौर में सही- गलत के पैमाने को संकुचित मान कूड़ेदान में फेंक दिया गया है। इसलिए यह जायज ही कहा जाएगा कि चाहे मांग के हिसाब से उत्पाद पैदा की जाए या उत्पाद के हिसाब से मांग पैदा की जाए; मूल चीज धन की प्राप्ति है। जब प्रचार तंत्र की बात कर रहे हैं तो एक और माध्यम है। वह है रियलिटी शो और सिनेमा का सह संबंध। एक वह समय था जब यह बात फैल रही थी कि टीवी का बढ़ता प्रचलन क्या सिनेमा को खत्म कर देगा? बढ़ती प्रतिस्पर्धा में क्या सिनेमा अधिक सुलभ और ज्यादा वास्तविक टीवी के सामने टिक सकेगा? मगर देखिए दोनों एक दूसरे के मार्केट में दखल देने के बजाए एक दूसरे का मार्केट बढ़ाने का काम कर रहे हैं। सलमान खान द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले रियलिटी शो में एक तरफ सारे बड़े बॉलीवुड स्टार अपनी फिल्मों का प्रचार करते हैं वहीं इन स्टारों की उपस्थिति से टीवी सीरियल की टीआरपी भी बढ़ जाती है। यह बात ’लिटिल चैंप्स’ पर भी लागू होती है और ‘तेरे मेरे बीच में‘ पर भी।
शुद्ध मुनाफे का यह अर्थशास्त्र स्वस्थ मनोरंजन को कितना और कब तक सहारा दे पाएगा; कहना मुश्किल है। अच्छी फिल्मों को जरूरत से ज्यादा प्रचार की जरूरत नहीं पड़ती। वैसे भी बॉलीवुड फिल्मों में सफलता का औसत 30 प्रतिशत से अधिक नहीं है। ऐसे में फिल्म उद्योग को ऐसे बेहिसाब खर्च करने पर नुकसान उठाना पड़ेगा। सब कुछ को ब्रांड में बदल देना उचित नहीं है। कला में कलात्मकता ही उसे हृदय तक पहुंचाती है। राम गोपाल वर्मा की ‘आग‘ या वार्नर ब्रदर की ‘चांदनी चौक टू चाइना‘ का बॉक्स ऑफिस कलेक्सन से ज्यादा अच्छा उदाहरण इसका क्या हो सकता है।
'अमर उजाला' में प्रकाशित

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

राम तारणहार या तोरणहार

लोकसभा में जिस लिब्रहान रिर्पोट ने संसद को कई दिनों तक गर्म रखा वो संसद से बाहर निकलते हीं खो गयी। जिस उम्मीद से यह रिपोर्ट लीक की गई थी; उसमें आंशिक सफलता भी न पा सकी। विद्वानों ने राय दी कि यह मुद्दा मर चुका है। दरअसल इसे तो मरना ही था। आखिर यह महज चुनावी मुद्दा जो ठहरा। एक दिन ऐसा आएगा; यह तो तभी लग गया था जब स्वयं अयोध्या में रहने वाले अधिकांष लोगों ने शुरू से ही राममंदिर आंदोलन का विरोध किया था। उनका विश्वास था कि राम सौहार्द और मर्यादारक्षक के प्रतीक हैं हिंसा और अलगाव के नहीं।

दरअसल राम की छवि एक धनुर्धारी योद्धा की है। जो उनके मर्यादा पुरुषोत्तम रूप पर भारी पड़ती है; जबकि कृष्ण की छवि मुरलीधारी माखनचोर बालगोपाल की है जो कि उनके कुटिल नीतिकार के चरित्र को ढ़क देती है। भारत के अधिकांश घरों में कृष्ण की पूजा की जाती है जबकि राम कुछ हजार अशोक सिंघलों की राजनीति के हथियार भर बन के रह गए हैं।

देखा जाए तो पिछले दो दशक में एक औसत भारतीय और अधिक धार्मिक हो गया है। बहुत कम लोग हैं जो खुले तौर पर यह स्वीकार कर सकें कि वे धर्म को नहीं मानते हैं। अतः अब धर्म को लेकर उठने वाले सवालों में भी परिवर्तन आया है। धर्मनिरपेक्ष होने से ज्यादा धर्म के स्वरूप पर विचार की जरूरत है। वैसे भी भारत में धर्मनिरक्षता का मतलब धर्म से इतर न होकर सर्वधर्मसमभाव ही माना जाता रहा है और भारतीय समाज को देखते हुए यही उपयुक्त भी लगता है। आधुनिकता की शुरूआत में ही धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय माना गया था। शुरूआत में इस पहल ने आश्चर्यजनक रूप से अलग अलग धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान की जगह संपूर्ण भारतीयता के दायरे में बहुलतावादी समाज की नींव रखी थी। सुदूर दक्षिण से लेकर बलूच कबीलों तक भारत का स्वप्न देखा गया।

आजादी के बाद जो भी टूटा-फूटा भारत बना उसने भरसक खुद को संवारने की कोषिष की। चालीस वर्षों तक उसने विभिन्न खट्टे मीठे अनुभवों से गुजरते हुए एक राष्ट्र के रूप में विकास करता रहा। परंतु नब्बे के दषक के कुछ ऐसे विभेदकारी परिर्वतन लाए; जिसने इस पहले से ही फटे चादर की मरम्मत को थोड़ा और कठिन बना दिया। नरसिंह राव की सरकार ने जिस आर्थिक उदारवाद को अपनाया उसने आर्थिक उन्नति तो दी; परंतु सामाजिक परिस्थितियों को काफी बदल दिया। जो समाज अभी तक सामंतवादी परंपरा की जकड़न को तोड़ न पाया हो; उसमें उत्तर - आधुनिक जीवन मूल्य ठूंसे जाने लगे। इस स्थिति ने एक कन्फ्यूज वर्ग को पैदा किया।

यह महज संयोग से कुछ ज्यादा है कि उदारवाद और कमंडलवाद लगभग एक साथ उभरे। ऐसा अकारण नहीं हुआ। दरअसल बाजारवाद ने जिस अंधाधुंध शहरीकरण को मजबूरी बना दिया; उसने परिवार के आकार को छोटा कर दिया। व्यक्ति अत्यधिक व्यस्त और अकेला होता गया। अपनी परंपराओं और संस्कृति से इतर एक उधार की संस्कृति के पीछे भागता शहरी मध्यवर्ग। इस स्थिति ने एक तरह की टूटन पैदा की है और एक तरह की आंतरिक ष्षून्यता। ऐसे अतिव्यस्त; नाराज और निराश समाज तक अपनी बात पहुंचाने और उन्हें आकर्षित करने के लिए किसी ऐसे प्रतीक की आवष्यकता थी; जिससे न तो वे नाराज हो सकें और न हीं निराष।

ऐसे में ‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ जैसे महाकाव्य न केवल राजनीति के बल्कि बाजार के भी सबसे आसान और सबसे कारगर हथियार बनकर उभरे। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ही इसलिए क्योंकि ये भारतीय समाज की जातीय स्मृति को झकझोरने की विराट ताकत रखते हैं। उनमें मनुष्य अपना इतिहास देखता है जो आधुनिक इतिहास से भिन्न लोकप्रिय इतिहास है।

पिछले दशकों का निर्णायक तत्व यही व्यवसायिक जातीय वृत्तांत है; जिसका नायक एक नया प्रतीक राम है। यही राम राजनीति और व्यवसाय दोनों के सबसे बड़े ब्रांड भी हैं और उत्पाद भी। यही वजह है कि यह नया प्रतीकात्मक ‘राम‘ समाज का पीछा नहीं छोड़ रहा। मगर जैसे काठ की हांडी दोबारा आग पर नहीं चढ़ती; वैसे ही समाज को एक ही झुनझुने से बार-बार नहीं बहलाया जा सकता। इस बहुलतावादी समाज में सबकुछ को पचा लेने की विराट क्षमता है। वह समझ चुकी है कि धर्म का संबंध आस्था से और राजनीति का व्यवहारिक जरूरतों से। दोनों का घालमेल सिर्फ नुकसान ही दे सकता है।

बुधवार, 20 जनवरी 2010

सचमुच ऐसा हुआ.

आज एक अजीब वाकया हुआ। साधारण रूप में अख़बार में छपने का मौका कोई नही छोड़ता , परन्तु मेरा अनुभव अलग रहा। आजकल मैं विभिन्न लोगों के इंटरव्यू लेकर कौलम रूप में लिखता हूँ। यह एक नया चलन है। इसी सन्दर्भ में आज एक पुलिस अधिकारी से मिला तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया।
उनका कहना था कि मेरा अनुभव इतना छोटा और 'टुच्चा सा' (सचमुच यही शब्द बोला था ) नही है जिसे आप यूँहीं आधे घंटे में निपटा दें। पहले समय लेकर आइये ,सिलसिलेवार सवाल बनाकर लाइए- फिर बात होगी। यह सुनकर जब मैं चलने को हुआ तो एकाएक अधिकारी साहब ने पैतरा बदला और माथे पर पसीने का अहसास दिलाते हुए कहने लगे मेरी तबियत ठीक नहीं है आप दो दिन बाद आइए फिर बात करेंगे। मानो अख़बार मेरे बाप कि जागीर हो। बुरा तो जरुर लगा पर जल्द ही यह अहसास हो गया कि अधिकारी साहब डरे हुए हैं।
एकाएक अनजान पत्रकारनुमा शख्श से सामना होने की उम्मीद नहीं रही होगी। हालाँकि मै तो साधारण बातें करने गया था, पर ये उन्हें कहाँ पता ? वो बेचारे इस सोंच मरे जा रहे थे कि पता नही यह टुच्चा आदमी क्या पूछ ले। तो भइया ये थी आज की रामकहानी .आगे फिर कभी।