बुधवार, 20 जनवरी 2010

सचमुच ऐसा हुआ.

आज एक अजीब वाकया हुआ। साधारण रूप में अख़बार में छपने का मौका कोई नही छोड़ता , परन्तु मेरा अनुभव अलग रहा। आजकल मैं विभिन्न लोगों के इंटरव्यू लेकर कौलम रूप में लिखता हूँ। यह एक नया चलन है। इसी सन्दर्भ में आज एक पुलिस अधिकारी से मिला तो उन्होंने साफ इंकार कर दिया।
उनका कहना था कि मेरा अनुभव इतना छोटा और 'टुच्चा सा' (सचमुच यही शब्द बोला था ) नही है जिसे आप यूँहीं आधे घंटे में निपटा दें। पहले समय लेकर आइये ,सिलसिलेवार सवाल बनाकर लाइए- फिर बात होगी। यह सुनकर जब मैं चलने को हुआ तो एकाएक अधिकारी साहब ने पैतरा बदला और माथे पर पसीने का अहसास दिलाते हुए कहने लगे मेरी तबियत ठीक नहीं है आप दो दिन बाद आइए फिर बात करेंगे। मानो अख़बार मेरे बाप कि जागीर हो। बुरा तो जरुर लगा पर जल्द ही यह अहसास हो गया कि अधिकारी साहब डरे हुए हैं।
एकाएक अनजान पत्रकारनुमा शख्श से सामना होने की उम्मीद नहीं रही होगी। हालाँकि मै तो साधारण बातें करने गया था, पर ये उन्हें कहाँ पता ? वो बेचारे इस सोंच मरे जा रहे थे कि पता नही यह टुच्चा आदमी क्या पूछ ले। तो भइया ये थी आज की रामकहानी .आगे फिर कभी।

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