सोमवार, 5 अप्रैल 2010

बॉलीवुड का बाजारभाव

पिछले दो दशक में बॉलीवुड का चाल; चरित्र और चलन काफी बदल गया है। यह महज संयोग नहीं कि बॉलीवुड में आया यह युगांतकारी बदलाव उस दौर में शुरू हुए जिसे उदारवाद का दौर बताया जाता है। 1990 -91 में आर्थिक मोर्चे पर शुरू हुए उदारवाद ने कुछ हद तक सांस्कृतिक माने जाने वाले सिनेमा की सीमाओं को खोलकर उसे एक नए दौर में पहुंचा दिया। ये दौर बाजार का दौर था। तकनीक और बाजार के मिले जुले सहयोग से हिंदी सिनेमा ग्लोबल हो गया। पुराने थियेटर एक के बाद एक बंद होने लगे।
देशी ललनाओं को लूटने वाले अप्रवासी नायक इस दौर में फिनोमिना बन गए। 1995 में चोपड़ा कैंप की शाहरूख - काजोल अभिनीत दिल वाले ‘दुल्हनिया ले जाएंगे‘ फिल्म आई। इसके बाद ऐसी फिल्मों की बहार आ गई। शाहरुख के सुपर स्टार बनने में ऐसी फिल्मों ने महती भूमिका निभाई। यह महज संयोग नहीं है कि शाहरूख हिंदुस्तान जितने ही बाहर भी लोकप्रिय हैं। इसी दौर में महानगरों में ही नहीं; मझोले शहरों तक में बड़ी संख्या में मल्टीप्लेक्स खुलने लगे। इसी वक्त ढ़ाई करोड़ एनआरआई और मल्टीप्लेक्स के देशी दर्शकों के साथ सिनेमा का एक नया कंज्यूमर क्लास सामने आया जिसके पास खर्च करने के लिए बहुत कुछ है। परंतु इसी काल खंड के दौरान टीवी दूरदर्शन के महाभारत और चित्रहार के सीखचों से बाहर निकलकर निजी चैनलों की जद में पहुंच गया। इससे थोड़ा बाद में ही इंटरनेट का भी उभार हुआ। इन माध्यमों के कंज्यूमर भी ज्यादातर यही वर्ग हैं। फलत: मनोरंजन के साधन के तौर पर सिनेमा को जबर्दस्त प्रतिस्पर्धा से गुजरना पड़ रहा है। हालांकि कई बार ये माध्यम सिनेमा के विरोधी नहीं पूरक की भूमिकाओं में भी नजर आते हैं।
इसका परिणाम पिछले कुछ समय से प्रचार के नए-नए हथकडों के रूप में सामने आया है। तकरीबन साल भर पहले ‘गजनी‘ के प्रदर्शन से पहले पिछली दिवाली पर एक मल्टीप्लेक्स के सभी कर्मचारी एक ही हेयर स्टाइल में नजर आए। मौका भी ऐसा चुना गया जिसने सोने पे सुहागा का काम किया। आमिर खान के प्रतिद्वंदी के रूप में जाने जाने वाले “ााहरुख खान अभिनित ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ का पहला “ाो उसी मल्टीप्लेक्स में चल रहा था। मीडिया को मसाला मिला और ‘गजनी‘ को पब्लीसिटी।
इस एक हेयर स्टाइल को ऐसा सिबांलिक रूप दिया गया कि उसने ‘गजनी‘ को 100 करोड़ से ज्यादा की कमाई करा दी। इससे पहले शाहरुख खान की ‘रब ने बना दी जोड़ी‘ के प्रमोशन में भी सारा घ्यान एक गाने पर रखा गया और शाहरुख के लुक पर जिसमें वे मूंछों वाले एक आम मिडिल क्लास आदमी नजर आ रहे हैं। 'थ्री इडियटस’ के प्रमोशन में तीन आदमी कैमरे की तरफ पीठ किए कमोड पर बैठे नजर आते हैं जबकि फिल्म का मुख्य थीम कुछ और हैं। जाहिर है कि इस तरह के प्रयोग अधिक से अधिक व्यूअर को मल्टीप्लेक्सों तक खींच कर लाने के लिए किए जा रहे हैं। ये एक अलग तरह का चिन्हशास्त्र है; जिसमें चिन्हों को ब्रांड में बदलकर अपने उत्पाद को बेचने की कोशिश की गई है।
ब्रांड वैल्यू के वर्तमान दौर में सही- गलत के पैमाने को संकुचित मान कूड़ेदान में फेंक दिया गया है। इसलिए यह जायज ही कहा जाएगा कि चाहे मांग के हिसाब से उत्पाद पैदा की जाए या उत्पाद के हिसाब से मांग पैदा की जाए; मूल चीज धन की प्राप्ति है। जब प्रचार तंत्र की बात कर रहे हैं तो एक और माध्यम है। वह है रियलिटी शो और सिनेमा का सह संबंध। एक वह समय था जब यह बात फैल रही थी कि टीवी का बढ़ता प्रचलन क्या सिनेमा को खत्म कर देगा? बढ़ती प्रतिस्पर्धा में क्या सिनेमा अधिक सुलभ और ज्यादा वास्तविक टीवी के सामने टिक सकेगा? मगर देखिए दोनों एक दूसरे के मार्केट में दखल देने के बजाए एक दूसरे का मार्केट बढ़ाने का काम कर रहे हैं। सलमान खान द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले रियलिटी शो में एक तरफ सारे बड़े बॉलीवुड स्टार अपनी फिल्मों का प्रचार करते हैं वहीं इन स्टारों की उपस्थिति से टीवी सीरियल की टीआरपी भी बढ़ जाती है। यह बात ’लिटिल चैंप्स’ पर भी लागू होती है और ‘तेरे मेरे बीच में‘ पर भी।
शुद्ध मुनाफे का यह अर्थशास्त्र स्वस्थ मनोरंजन को कितना और कब तक सहारा दे पाएगा; कहना मुश्किल है। अच्छी फिल्मों को जरूरत से ज्यादा प्रचार की जरूरत नहीं पड़ती। वैसे भी बॉलीवुड फिल्मों में सफलता का औसत 30 प्रतिशत से अधिक नहीं है। ऐसे में फिल्म उद्योग को ऐसे बेहिसाब खर्च करने पर नुकसान उठाना पड़ेगा। सब कुछ को ब्रांड में बदल देना उचित नहीं है। कला में कलात्मकता ही उसे हृदय तक पहुंचाती है। राम गोपाल वर्मा की ‘आग‘ या वार्नर ब्रदर की ‘चांदनी चौक टू चाइना‘ का बॉक्स ऑफिस कलेक्सन से ज्यादा अच्छा उदाहरण इसका क्या हो सकता है।
'अमर उजाला' में प्रकाशित

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