मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

रथ पर राजनीति


लालकृष्ण आडवाणी की वर्तमान रथयात्रा, जिसे ‘जनचेतना यात्रा ’ नाम दिया गया है, का उद्देश्य अन्ना हजारे के अनशन से उठी जनचेतना का राजनीतिक लाभ लेने के साथ-साथ आडवाणी जी को पुनः भाजपा का सर्वमान्य  नेता के तौर पर स्थापित करना है। यह यात्रा अरुणाचल  प्रदेश, पश्चिम बंगाल और असम के साथ चुनावी राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा से भी गुजरेगी। आडवाणी जी की यह सातवीं रथ यात्रा है। इससे पहले वे रामरथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंती यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा निकाल चुके हैं। भाजपा के महासचिव अनंत कुमार इस यात्रा के मुख्य समन्वयक हैं तथा कई दिग्गज भाजपा नेता मसलन रवि शंकर प्रसाद, मुरलीधर राव और पार्टी सचिव श्याम जाजू सह-समन्वयक की भूमिका में डटे हुए हैं।
तैयारी जोरों पर है। 11 अक्टूबर को शुरू हुई यह यात्रा 38 दिन तक चलेगी। कुल 18 राज्यों और 3 केन्द्रशासित प्रदेशों को कवर करेगी। बारह हजार किलोमीटर का सफर तय किया जायेगा। यात्रा सुबह 10 बजे से रात 10 बजे तक चलेगी। इस दौरान 250 से 300 किलोमीटर तक की दूरी तय की जायेगी। इस यात्रा के लिए रथ के तौर पर अत्याधुनिक बस का इस्तेमाल किया जाएगा। बस पुणे में तैयार की जा रही है। भाजपा सचिव श्याम जाजू के अनुसार बस में लिफ्ट, टेलीविजन,  कम्प्यूटर और लोगों को संबोधित करने की प्रणाली लैस होगी।
                     इन तैयारियों से तो यही लगता है कि आडवाणी जी ने पूरा रंग जमाने की तैयारी कर ली है। पर इस रंग में भंग तब पड़ जाता है, जब गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के कद्दावर नेता नरेन्द्र मोदी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक में नहीं पहुंचते। इस अनुपस्थिति के कई निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे मोदी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा से जोर कर देख रहे हैं, तो कुछ इसे मोदी की नाराजगी बता रहे हैं। गौरतलब है कि पिछले दिनों अपने उपवास के दौरान किसी बड़े भाजपा नेता के गुजरात न पहुँचने पर मोदी ने अपनी नाराजगी जताई थी। इस सारे झमेले से एक बात को स्पष्ट हो चुकी है कि आडवाणी अब भाजपा में सर्वमान्य नहीं रह गए हैं।
            आडवाणी वही व्यक्ति हैं, जिन्हें कुछ समय पहले तक भाजपा की रीढ  कहा जाता था। 1990 में सोमनाथ से अयोध्या तक राम मंदिर निर्माण के समर्थन में रामरथ यात्रा निकाल कर उन्होंने कट्टर
हिन्दूवादी राजनीति की शुरूआत की थी। इसी रथ पर सवार होकर भाजपा पहले उत्तर प्रदेश और बाद में केन्द्र में सत्ता में आयी। चार बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी का चेहरा अवश्य थे। मगर पार्टी के अंदर आडवाणी की ही तूती बोलती थी। उन्हें आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) का भी पूर्ण समर्थन हासिल था। इसकी वजह भी थी। दरअसल, इस पार्टी से उनका जुडाव तब से है, जब से एक विचार के रूप में इसकी शुरूआत हुई थी।
उनकी उपलब्धियां पार्टी में उनकी स्थिति का समर्थन करती है। मगर पिछले कुछ समय से आडवाणी अपनी कट्टर हिंदूवाद की छवि को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। इसके पीछे उनके निकटतम सहयोगी सुधीन्द्र कुलकर्णी का प्रभाव माना जाता है। राजनीतिक विश्लेषकों का एक तबका यह मानता है और कहता रहा है कि भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक , बहुधार्मिक देश में कोई धर्मनिरपेक्ष छवि वाला व्यक्ति ही सत्ता की बागडोर संभाल सकता है। अपनी छवि बदलने की कवायद आडवाणी ने पाकिस्तान यात्रा के समय ही कर दी थी, जब जिन्ना के मजार पर जाकर उन्होंने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान को सराहा था। मगर तभी से वे आरएसएस के आंखों की किरकिरी भी बन गए।
वर्तमान रथयात्रा में इस भेद को महसूस किया जा सकता है। क्योंकि आरएसएस ने इसी शर्त पर इस रथयात्रा को सहयोग देना स्वीकार किया कि प्रधानमंत्री के उम्मीदवारी  से इस यात्रा का कोई लेना देना नहीं है। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का स्पष्ट बयान आया कि लालकृष्ण  आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की होड़ के लिए नहीं है। बल्कि आडवाणी भारत में सुशासन लाने और भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए यह यात्रा कर रहे हैं। यात्रा के संयोजक अनंत कुमार ने भी यह बयान दिया कि यह यात्रा ‘देश पहले’ की भावना को बढ़ाने के लिए है। स्वयं आडवाणी को भी इसकी पुष्टि करनी पड़ी। नागपुर में सरसंघचालक (आरएसएस) मोहन भागवत से मुलाकात के बाद ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि बीजेपी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद से बहुत अधिक दिया है।
भाजपा नेता के बयानों से तो यही लगता है कि आडवाणी प्रधानमंत्री की दावेदारी के लिए यह यात्रा नहीं कर रहे। मगर तथ्य कुछ और कहते हैं। यात्रा की शुरूआत पोरबंदर (गुजरात) से न करके सिताब दियरा (बिहार) से करने का कारन दरअसल, भाजपा के भीतर आडवाणी जी के आलोचकों का  मुंह बंद करने के साथ-साथ एनडीए के घटक दलों को भी यह संदेश देना है कि कभी कट्टरपंथी समझे जाने वाले आडवाणी अब सेक्यूलर छवि वाले नीतीश को भी स्वीकार्य हैं। सिताब दियरा लोक नायक जयप्रकाश नारायण का जन्म स्थान है वहीं यात्रा को हरी झंडी दिखाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्ष चेहरा और भाजपा के सबसे बड़े सहयोगी दल के मुखिया। अगले लोकसभा चुनाव में मोदी को राजग का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की कवायद के सख्त विरोधी जदयू के शीर्ष नेता नीतीश कुमार से आडवाणी की रथयात्रा को हरी झंडी दिखाने के गहरे राजनीतिक अर्थ निकाले जा रहे हैं। संभवतः यह पार्टी और जदयू को यह संकेत देने का प्रयास हो कि प्रधानमंत्री पद के विकल्प अभी खुले हैं।
मामला काफी नाटकीय होता जा रहा है। भविष्य में कई और राजनीतिक पैतरे आजमाए जाएंगे। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपनी अंदरूनी लड़ाई में फंसी रहती है या इससे उबरकर वर्तमान परिस्थितियों का लाभ उठा पाती है। फिलहाल तो इस उठा-पटक से यूपीए को ही फायदा हो रहा है।

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