मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

संकट में सीरिया


आधुनिकता की दस्तक के साथ ही 18वीं,19वीं सदी में औद्योगिकरण, उपनिवेशवाद और पुनर्जागरण के दौर ने विश्व राजनीति में जो उथल-पुथल पैदा की थी, वैसा ही उथल-पुथल 21वीं सदी में ट्यूनीशिया, मिश्र, लीबिया और सीरिया आदि देशों में दिखाई दे रहा है। ट्यूनीशिया के शक्तिशाली व्यक्ति 74 वर्षीय जाइन-अल-अबीदीन बेन अली द्वारा अचानक अपना देश छोड़ना अरब और मुस्लिम विश्व के लिए दूरगामी परिणाम वाला साबित हुआ। इस घटना पर इजिप्ट के एक विश्लेषक ने टिप्पणी करते हुए कहा कि-‘प्रत्येक अरब नेता ट्यूनीशिया को भय से देख रहा है और प्रत्येक अरब निवासी ट्यूनीशिया को आशा और एकजुटता के साथ देख रहा है।’ 
              जल्द ही यह टिप्पणी मिश्र, लीबिया और सीरिया में सही होती नजर आई। मिश्र में होस्नी मुबारक सत्ता खो चुके हैं। लीबिया में गद्दाफी की सेना और नाटो के बीच सशस्त्र संघर्ष जारी है और सीरिया में जनक्रान्ति निरंतर जोर पकड़ती जा रही है। मार्च से जारी इन विरोध प्रदर्शनों में संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार अब तक 2900 से भी अधिक लोग मारे जा चुके हैं। सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल-अशद की सरकार का कहना है कि वह सुधारों को लागू करने की कोशिश कर रही है और साथ ही विपक्ष के साथ भी बात हो रही है। उसने असंतोष के लिए सशस्त्र गुटों को जिम्मेदार ठहराया है। जबकि मानवाधिकार संगठनों और वैकल्पिक मीडिया से छनकर आई खबरों से यही पता चलता है कि लीबिया से अलग सीरिया में विरोध प्रदर्शन ज्यादातर शांतिपूर्ण रहे हैं।
इसके पहले अप्रैल महीने में हुए सरकार विरोधी प्रदर्शन को बेरहमी से कुचलते हुए पुलिस ने अंधाधुंध गोलीबार कर करीब 90 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। इस दमन के विरोध में यूरोपीय संघ ने मई महीने में सीरियाई राष्ट्रपति पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी। ब्रिटेन के विदेश मंत्री विलिम हेग ने कहा कि सीरिया में दमन की कार्रवाई निरंतर चल रही है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन का अधिकार होना चाहिए। लेकिन रूस और चीन ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वीटो की धमकी दी। साथ ही भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका आदि देश भी प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हैं। इस पर यूरोपीय देश सीरिया सरकार के खिलाफ तत्काल प्रतिबंध की मांग छोड़ संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से प्रस्ताव लाने पर सहमत हुए थे। इस प्रस्ताव का मकसद ही रूस और चीन का समर्थन हासिल करना था।
                    प्रस्ताव पर हुई वोटिंग में चीन और रूस ने वीटो कर दिया तथा भारत समेत चार देश अनुपस्थित रहे। प्रस्ताव की असफलता से अमेरिका और यूरोपीय संघ को झटका लगा है। वहीं सीरिया में चीन और रूस के खिलाफ भी प्रदर्शन हो रहे हैं। जबकि इन दोनों देशों ने अपना रुख पहले से ही स्पष्ट कर रखा था। रूसी
विदेश उपमंत्री गेनादी गतिलोव ने इससे पहले कहा था कि प्रस्ताव इसलिए अस्वीकार्य है क्योंकि वह प्रतिबंध की ओर बढ़ता है। इस राजनीतिक उठा-पटक से अलग सीरिया के दमिश्क, हमा, दार उल और हुला शहर पर भारी संख्या में बख्तरबंद गाडि़यों में बैठे सैनिक लोगों को बेरहमी से मार रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों को वहां प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। इससे वास्तविक स्थिति की जानकारी नहीं मिल रही। 1946 में फ्रांस के शासन से मुक्ति के बाद से सीरिया में लगातार राजनीतिक अस्थिरता रही है। सन् 1963 से ही देश में आपातकाल लागू है। 1970 के बाद से यहां के शासक अशद परिवार के लोग होते रहे हैं। देश की 90 फीसदी आबादी मुस्लिम है और 10 प्रतिशत इसाई। 1973 में संविधान बनाकर उसे अपना लिया गया, जिसमें बाथ पार्टी को नेतृत्व का अधिकार मिला साथ ही यह प्रावधान भी कर दिया गया कि कोई मुस्लिम ही राष्ट्रपति हो सकता है।
                     अमेरिका और यूरोपीय समुदाय सीरियाई अर्थव्यवस्था के कमजोर होने का हवाला देकर प्रतिबंधों की पैरवी कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस प्रकार अशद सरकार को झुकाया जा सकता है। मगर तथ्य कुछ और कहते हैं। दरअसल सीरिया अपना धन अमेरिका या किसी यूरोपीय देश में नहीं रखता, बल्कि अपने देश में ही रखता है। उसकी सेंट्रल बैंक के पास पहले से ही 17 बिलियन अमेरिकी डालर सुरक्षित रखें हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सीरिया न तो विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा है और न ही सार्वभौमिक अर्थव्यवस्था में एकीकृत  हो पाया है। वह कृषि समेत कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भर है। घरेलू उपभोग के लिए उसके पास पर्याप्त तेल और गैस मौजूद है। इसके अलावा ईरान सदैव उसकी मदद को तैयार रहेगा।
प्रतिबंधों के पीछे एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि इससे सीरिया का बिजनेस समुदाय अशद सरकार का समर्थन करना बंद कर देंगे। यह भी सत्य से दूर लगता है। असल में सीरिया का बिजनेस समुदाय दो भागों में बंटा है। एक नया मध्य वर्ग है, जिसे अशद सरकार का भरपूर समर्थन प्राप्त है तो दूसरा पारंपरिक सुन्न्नी और इसाई व्यापारिक परिवार। जो अस्थिरता और धार्मिक संघर्ष से डरता है। अतः सीरिया में प्रतिबंध बहुत कारगर साबित नहीं होंगे। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रस्ताव के पास न होने पर रूस और चीन को यह चेतावनी देते हुए कहा है कि उन्हें वोटिंग में वीटो करने के कारण सीरिया में पैदा होने वाली स्थिति की जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी।

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