मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

नायक से अधिनायक तक


        कैसे एक व्यक्ति नायक से अधिनायक के रूप में तब्दील होकर अप्रत्याशित अंजाम तक पहुंचता है, इसकी बानगी के रूप में कर्नल गद्दाफी को देखा जा सकता है। वो एक छोटे देश के बड़े शासक थे और सबसे बड़े देश (अमेरिका) की आंखों की किरकिरी बन गए। इस बार अमेरिका ने नेपथ्य में रहकर खेल खेला। कर्नल गद्दाफी वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अरब राष्ट्रवाद का नारा दिया था। आज अगर अरब मुल्क अपने तेल के कुओं के बन पर मालामाल हैं तो यह गद्दाफी की देन है। जानकार कहते हैं कि वो एक छोटे देश के बड़े शासक थे। मगर बाहरी दुनिया वो अपने  सनकी मिजाज, अय्याशी भरे जीवन और महिला बॉडीगार्डों के कारण ही ज्यादा जाने गए।
1960 के दशक में दुनिया के कई हिस्सों में जनक्रान्तियां जन्म ले रही थी। एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका आदि देशों में राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की लहर सी दौर रही थी। साम्रज्यवादी सत्ता की चूलें हिलने लगी थी। सोवियत संघ और अमेरिका के बीच जारी शीत युद्ध ने दुनिया के अन्य देशों को प्रतिरोध का अवसर दिया। यही वह समय था जब लीबिया में भी निरंकुश शासन के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी भड़क उठी। मुअम्मर गद्दाफी इसी विद्रोह की उपज थे।
   मरूस्थल में बसने वाले एक गरीब आदिवासी कबीले में जन्म लेने वाले गद्दाफी उन युवा सैन्य अफसरों में शामिल थे जिनपर मिस्र के नेता जमाल अब्दुल नासिर के पैन-अरबवाद और समाजवादी सुधारवाद का काफी गहरा प्रभाव पड़ा। गरीब कबीलों के साथियों के साथ अपनी फौज बनाकर 1969 में उन्होंने सम्राट इद्रीस के खिलाफ सैनिक विद्रोह कर दिया और एक रिवोल्यूशनरी  कमांड कौंसिल बनाकर उसके तहत सरकार की स्थापना की। गद्दाफी ने सत्ता संभालने के बाद खुद को कर्नल के खिताब से नवाजा। देश के आर्थिक सुधारों की तरफ ध्यान दिया। पुरानी सत्ता पर राष्ट्रीय संपत्ति के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए उन्होंने प्रमुख तेल उद्योग में सरकार की हिस्सेदारी तय की। 1970 के दशक में उन्होंने जिन सामाजिक कार्यक्रमों को अपनाया उससे अगले 20 वर्षों तक जन साक्षरता,आवास और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी विकास हुआ। उनकी इन नीतियों को जनता का समर्थन मिला।
विशेषज्ञों का मानना है कि गद्दाफी परिवर्तन तो ला रहे थे मगर यह परिवर्तन साम्राज्यवादी प्रभुत्व, पूंजीवादी पूंजी, कबीलाई निष्ठा और क्षेत्रीय भेदभाव के भंवर में फंस गई थी। कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे यह लगे कि साम्राज्यवाद से नाता तोड़ना कहा जा रहा है। गद्दाफी ने राजनीतिक समर्थन को विस्तार देने और केन्द्रीय सत्ता के प्रति आदिवासी समूहों और कबीलों की निष्ठा हासिल करने के लिए स्थानीय स्तर पर ‘जन समीतियों’ का गठन किया। लीबिया सैन्य तानाशाही की तरफ बढ़ने लगा था। कम्युतिष्ट  विरोधी गद्दाफी का दावा था कि उन्होंने पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच तीसरा रास्ता ढ़ूढ़ निकाला है। पर सच तो यह था कि लीबिया तेल से होने वाली आय पर आधारित राज्य पूंजीवाद की तरफ बढ़ रहा था जिसने बाजार, टेक्नोलॉजी, परिवहन और निवेश की जाने वाली पूंजी के लिए विश्व पूंजीवाद को गले लगा लिया था। तेल से होने वाली इस आय का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर सुरक्षा और सैन्य तंत्र को विकसित करने के लिए किया जाने लगा। इसका मकसद सरकार के विरूद्ध आंतरिक विद्रोह का दमन करना था। सोवियत संघ ने इस मामले में लीबिया का भरपूर साथ दिया। लीबिया को सबसे ज्यादा हथियार उसने ही बेचे।
    मगर गद्दाफी ने विकास के जिस मॉडल को अपनाया उसमें काफी विरोधाभास था। एक तरफ तो वो आर्थिक विकास के लिए प्रयास कर रहे थे तो दूसरी तरफ सामाजिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंध भी लगा रहे थे।  उन्होंने मजदूर यूनियनों और स्वतंत्र राजनीतिक संगठनों को गैरकानूनी घोषित कर दिया। प्रेस द्वारा सरकार की आलोचना पर लगभग प्रतिबंध लगा दिया।
  जिस साम्राज्यवाद का नारा देकर वे सत्ता में आए थे उसके विरूद्ध लीबिया की सारी परियोजनाएं तेल आधरित अर्थव्यस्था को बनाए रखने और उसके विस्तार पर टिकी थी। लीबिया अपने तेल के व्यापार के लिए पश्चिमी यूरोप पर  निर्भर था। गद्दाफी ने तेल से मिले पैसे से फ्रांस से जेट विमान खरीदे, निर्माण के क्षेत्र में निवेश के लिए जर्मनी की पूंजी को आमंत्रित किया तथा इटली जिसने काफी समय तक उसे अपना उपनिवेश बना रखा था उसकी सबसे बड़ी ऑटोमोबाईल कंपनी में निवेश और अपने देश में व्यापार जारी रखने की इजाजत दे दिया। इन फैसलों से लीबिया में गद्दाफी की लोकप्रियता जाती रही।
बाद में उनपर चरमपंथी संगठनों को भी समर्थन देने के आरोप लगे। बर्लिन के एक नाइट क्लब पर साल 1986 में हुए हमले का आरोप गद्दाफी पर लगाया गया। इस क्लब में अमेरिकी फौजी जाया करते थे। इसकी प्रतिक्रिया में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के आदेश पर त्रिपोली और बेनगाजी पर हवाई हमले हुए। इस हमले में गद्दफी बच निकले। इसके अलावे लॉकरबी शहर के पास पैनएम जहाज में हुए एक विष्फोट में 270 लोग मारे गए। हमले के दो आरोपियों को गद्दाफी ने स्कॉटलैंड पुलिस को सौंपने से इनकार कर दिया। प्रतिक्रियास्वरूप संयुक्त राष्ट्र ने लीबिया पर प्रतिबंध लगा दिए। 1999 में दोनों के आत्मसमर्पण के बाद  यह प्रतिबंध हटा।
 जहां तक वैचारिक स्तर का सवाल है तो गद्दाफी ने इस्लाम को सरकारी तौर पर राज्य का धर्म घोषित किया। महिलाओं को अवश्य पहले के मुकाबले ज्याद आजादी मिली मगर पितृसत्तात्मक शरियत कानून को वैधानिक जामा पहना दिया।
2003 में इराक पर हमले के बाद गद्दाफी यह सोचने को मजबूर हुए कि अब अगला निशाना लीबिया हो सकता है। परिणामस्वरूप अमेरिका के साथ दोस्ती का प्रयास शुरू हुआ। इसी के तहत उसने अमेरिका से खुफिया सूचनाएं बांटी। 2004 में ऐलान किया कि महत्वपूर्ण परमाणु हथियार कार्यक्रमों को खत्म किया जा रहा है। अमेरिका ने भी आतंकवादी देशों की सूची से लीबिया का नाम हटा दिया। ब्रिटेन उसे हथियार बेचने लगा। यही नहीं फरवरी 2011 में अंतराष्ट्रीय मुद्राकोश ने एक रिपोर्ट जारी की जिसमें गद्दाफी के ‘महत्वाकांक्षी सुधार एजेंडा’ और ‘जबरदस्त मैक्रो इकोनॉमिक कार्यकुशलता’ के लिए उन्हें शाबाशी दी। हैरानी  की बात है कि जनता के विद्रोह के बाद अमेरिका और यूरोप ने न केवल गद्दाफी से किनारा कर लिया, बल्कि विद्रोहियों को मदद भी दी।
 वर्तमान विद्रोह से पहले लीबिया दुनिया का नौवां सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश था। इस विद्रोह ने संभव हो पश्चिमी शक्तियों को यह उम्मीद दी हो कि उन्हें कोई दूसरा ऐसा शासक वहां मिल जाए, जिसके माध्यम से लीबिया में उनके हित सध सकें। अतः इस बात की संभावना जताई रही है कि एक तरफ लीबिया में न्यायपूर्ण जनविद्रोह है तो दूसरी तरफ साम्राज्यवादी छल-कपट भी है। गद्दाफी की मौत के बाद इस देश में अराजकता का माहौल न पनपे इसके उपाय करने होंगे। हालांकि उनकी यह नियति कहीं न कहीं पश्चिम की दोहरी नीति का ही एक उदाहरण है। पश्चिीमी शक्तियों ने अरब देशों का जमकर दोहन तो किया मगर उनके सामाजिक विकास का शायद ही कोई प्रयास किया हो। अब उनकी मौत के बाद लीबिया को लोकतंत्र के रास्ते पर ले जाने का रास्ता न तो राष्ट्रीय परिषद के पास है और न यूरोप-अमेरिका के पास। इराक और अफगानिस्तान में आज तक स्थिरता नहीं आ पायी है। लीबिया का समाज तो कबीलों में बंटा समाज है। परस्पर प्रतिस्पर्धा का माहौल है। ऐसे में चुनौति और कठिन हो जाती है।
एक अच्छी बात यह हुई है कि लीबिया संघर्ष में नाटो फौज की कमान संयुक्त राष्ट्र के हाथों में रही है। अमेरिका पर्दे के पीछे ही रहा है। अतः लीबिया के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र को ही निभानी होगी।
लीबिया के पास धन की कमी नहीं है। विदेशों में ही लीबिया की 168 अरब डॉलर की संपत्ति जब्त की गई थी।  युद्ध से पहले लीबिया का आर्थिक उत्पादन 80 अरब डॉलर का था। युद्ध के दौरान लीबिया को लगभग 15 अरब डॉलर का नुकसान उठााना पड़ा। मगर लीबिया सेंट्रल बैंक के पूर्व गर्वनर फरहत बंगदारा के मुताबिक, यदि विदेशी सरकारें लीबिया की जब्त संपत्ति को मुक्त कर दें तो यह बड़ा संकट नहीं है। जरूरत इच्छाशक्ति की है। भारत ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए हर तरह के मदद की पेशकश कर दी है।

1 टिप्पणी:

  1. I agree with your post. A person only changed after negative thing. I read your post, it is informative for everyone. I work in Car towing service company. It is provide best towing service for customer.

    जवाब देंहटाएं