गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

बाजार में हिस्सेदारी ढूंढ़ता हिंदी सिनेमा

आमिरखान अचानक गायब हो जाते हैं, मीडिया को मिर्ची लग जाती है। सचिन तेंदुलकर सामने आते हैं, एक फिक्र पढ़ते हैं और कहते हैं - बूझो तो जानें। सारे भाई लोग परेशान ये क्या बात हुई। आखिर सचिन ने ऐसा क्या कह दिया। और सचिन बल्ला छोरकर कविता क्यों कर रहे हैं।

सामान्य भाई लोग कविता के बारे में सोंच रहे थे और मुझ जैसे सवाल - जवाब करने वाले सोंच रहे थे कि इससे पहले तो कभी सुनने में नही आया कि आमिर सचिन में इसी लंगोटछाप दोस्ती है।

खैर हो भी सकती है आखिर दोनों स्टार जो ठहरे - खुद की नही तो एक दूसरे की रौशनी से चमकेंगे। चमकना आखिर इनकी फितरत से ज्यदा जरुरत जो ठहरी। बेचारे दादा के पास आज कितने विज्ञापन हैं। फ़िल्मी दुनियां के कितने लोगों की आज पूछ बांकी है। विनोद खन्ना, राजेश खन्ना, साब बेच्रे छोटे मोटे रोल से कम चलते हैं। एक समय के सुपर स्टार राजेश खन्ना की तो भैया पूछो ही मत- नौकर भी मुंह नही लगाते। ले दे कर अमित जी ने ही इज्जत बचा रखी है, सो ससब उन्ही के राश्ते को सही मानते हैं।

आजकल तो वैसे भी बाजार का बोलबाला है। इसमें जो बिकता है वही दिखता है। इंडस्ट्री वाले कहते रहें कि जिसे दिखायेंगे वही बिकेगा। दर्शकों ने चूतिया बनाने से इंकार करना शुरू कर दिया है रही आमिर कि बात तो उन्हें पता है कि तारे जमीं पर बनाना और बात है उसे निभाना बच्चों का खेल नही। तब भला वो क्यों चुकने लगे बाजार को लपकने से , अब चाहे उंगली लम्बी हो कर टूट ही क्यों न जाय।

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