शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

धर्म और राजनीति का गंठ्जोर


तुलसी के राम तत्कालीन जनमानस के हृदय को जोरने वाले राम थे । वही अशोक सिंघल के लिए राजनीति के सबसे बड़े हथियार बनकर अवतरित हुए। दरअसल जबसे आर्थिक उदारवाद आया - सबकुछ मुनाफ़े के तराजू में तोला जाने लगा । राम और कृष्ण मुनाफा कमाने महत्वपूर्ण स्रोत बन कर उभरे । रामायण और महाभारत ने जितना मुनाफा कमाकर दिया , उतना शायद ही किसी और शॉपओपेरा ने इससे पहले कमाया हो। बाजार के तो मनो दोनों हाथों में लड्डू । भारतीय स्मृति के दो सबसे बड़े चिह्न उनके उत्पाद को बेचने के सबसे बड़े औजार बने। यही वो समय था ,जब भारतीय राजनीति में मंडल और कमंडल का आगमन होता है। यह अपनेआप में सयोंग से कुछ ज्यादा है। एक तरफ बाजार ने संयुक्त शब्द को निरर्थक करने का प्रयास क्या तो मंडल उभरा, और अपने उत्पाद को बेचने के लिए राम और कृष्ण नाम के प्रतीक का सहारा लिया तो कमंडल। बाजार के इस खेल ने राजनीति का दामन थामकर खून का जो खेल खेला है , उसमे कितने गोधरा और कितने शेपियाँ अभी और होंगे - कहना मुश्किल है। जब इश्वर और अल्लाह मानने से ज्यादा मनवाने ,और प्रेम से ज्यादा शत्रुता देने वाले बन जायें तो यह ठहर कर सोचने की जरुरत है कि क्या हमें ऐसे इश्वर चाहिए। शायद कबीर ने इसीलिए कट्टरता के विरुद्ध निर्गुण ब्रहम कि कल्पना कि थी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें